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क॒था ते॑ अग्ने शु॒चय॑न्त आ॒योर्द॑दा॒शुर्वाजे॑भिराशुषा॒णाः। उ॒भे यत्तो॒के तन॑ये॒ दधा॑ना ऋ॒तस्य॒ साम॑न्र॒णय॑न्त दे॒वाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kathā te agne śucayanta āyor dadāśur vājebhir āśuṣāṇāḥ | ubhe yat toke tanaye dadhānā ṛtasya sāman raṇayanta devāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क॒था। ते॒। अ॒ग्ने॒। शु॒चय॑न्तः। आ॒योः। द॒दा॒शुः। वाजे॑भिः। आ॒शु॒षा॒णाः। उ॒भे इति॑। यत्। तो॒के इति॑। तन॑ये। दधा॑नाः। ऋ॒तस्य॑। साम॑न्। र॒णय॑न्त। दे॒वाः ॥ १.१४७.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:147» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब एकसौ सैंतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मित्र और अमित्र के गुणों का वर्णन करते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् (ददाशुः) देनेवाले (आयोः) विद्वान् ! जो आप (ते) उन तुम्हारे (यत्) जो (वाजेभिः) विज्ञानादि गुणों के साथ (आशुषाणाः) शीघ्र विभाग करनेवाले (तनये) पुत्र और (तोके) पौत्र आदि के निमित्त (उभे) दो प्रकार के चरित्रों को (दधानाः) धारण किये हुए (शुचयन्तः) पवित्र व्यवहार अपने को चाहते हुए (देवाः) विद्वान् जन हैं वे (सामन्) सामवेद में (ऋतस्य) सत्य व्यवहार का (कथा) कैसे (रणयन्त) वाद-विवाद करें ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - सब अध्यापक विद्वान् जन उपदेशक शास्त्रवेत्ता धर्मज्ञ विद्वान् को पूछें कि हम लोग कैसे पढ़ावें, वह उन्हें अच्छे प्रकार सिखावे, क्या सिखावे ? कि जैसे ये विद्या तथा उत्तम शिक्षा को प्राप्त इन्द्रियों को जीतनेवाले धार्मिक पढ़नेवाले हों वैसे आप लोग पढ़ावें, यह उत्तर है ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मित्राऽमित्रयोर्गुणानाह ।

अन्वय:

हे अग्ने ददाशुरायोस्ते यद्ये वाजेभिः सह आशुषाणास्तनये तोके उभे दधानाः शुचयन्तो देवाः सन्ति ते सामन्नृतस्य कथा रणयन्त ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कथा) कथम् (ते) तव (अग्ने) विद्वन् (शुचयन्तः) ये शुचीनात्मन इच्छन्ति ते (आयोः) विदुषः (ददाशुः) दातुः (वाजेभिः) विज्ञानादिभिर्गुणैः सह (आशुषाणाः) आशुविभाजकाः (उभे) द्वे वृत्ते (यत्) (तोके) अपत्ये (तनये) पुत्रे (दधानाः) (ऋतस्य) सत्यस्य (सामन्) सामनि वेदे (रणयन्त) शब्दयेयुः। अत्राडभावः। (देवाः) विद्वांसः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - सर्वे अध्यापका विद्वांसोऽनूचानमाप्तं विद्वांसं प्रति प्रच्छेयुर्वयं कथमध्यापयेम स तान् सम्यक् शिक्षेत यथैते प्राप्तविद्यासुशिक्षा जितेन्द्रिया धार्मिकाः स्युस्तथा भवन्तोऽध्यापयन्त्वित्युत्तरम् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात मित्र व अमित्रांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - सर्व अध्यापकांनी विद्वान, उपदेशक, शास्त्रवेत्ते, धर्मज्ञ विद्वानांना विचारावे की आम्ही चांगल्या प्रकारे कसे शिकवावे? काय शिकवावे? विद्या सुशिक्षणाने जितेंद्रिय व धार्मिक बनतील तसे तुम्ही शिकवावे हे उत्तर आहे. ॥ १ ॥